लम्बा पथ अनबूझा
दूर क्षितिज सिन्दूरी श्यामल
अवसान समीप रश्मिरथी का
साँझ ढल रही शिथिल पगों से
रजनी ताक रही एकांत चित्त अवगुंठन से।
व्योम नापने निकले
पंख पखेरू लम्बे पर भरते
लौट रहे हर्षित आकुल नीड़ों की ओर
प्रीति प्रेम के चुग्गे उर ओट छिपाये सश्रम
प्रिया जोहती बाट उन्मीलित दृग आँगन से।
चूल्हे चौके मचल रहे
धूम्र मेघ मँडराये टूटी खपरैलों पर
सोंधी सोंधी मँहक उठ रही चतुर्दिक
हस्त लगन लाघव कौशल नाचती रोटी
शिशु किलकारी गूँजती ममता के आँचल से।
स्वेद नहाये शिथिल गात
अलसाये सहलाते थकित पंख
प्राणप्रिया का सलज्ज अनुरक्त ताकते मुख
मधुर कल्पना में खोये स्वप्नलोक में विस्मृत
रेशमी दुकूलों के ताने बाने बुनते मनुहारों से।
स्वर्ण पींजरे का बंदी
मेरा मन विहंग ताकता मर्माहत
सामर्थ्य परों की तौलता परख नापता
अंधमोह की कारा तोड़ उड़ा मुक्त गगनबँ
धा रहा वृथा माया ममता भ्रम सम्मोहन से।
डॉ० स्वामी विजयानन्द
२०-०५-२०२२